Sunday, 3 April 2016

Robin Hood of India Tantya Bhil  महानायक टंटया भील


04/04/2016

टांटिया भील का जन्मोत्सव है।

सभी से निवेदन हे की अपने गाँवो ,कस्बो,शहरों में जन्म उत्सव मनाये ।

जय हो टांटिया भील

जय आदिवासी
जय जय हो.....
आज़ादी के लिए नाजाने कितने भारत माँ के लाल बलिदान हो गए , पर दुर्भागय से आज उनका कोई नाम बी नहीं जानता .....
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टंट्या भील जिसने अंग्रेजो से लोहा लिया ,उनके विरोध आवाज़ उठाई , वह उन हजारो क्रान्तिकारीयो में एक थे जिन्होंने अंग्रेज़ो को छट्टी का ढूढ याद दिला दिया था ....
टंट्या भील का जिसे टंट्या मामा या कहे भारत का रॉबिनहुड बी कहा जाता है .... का जन्म Madya pradesh के Nimad क्षेत्र में 1844 को हुआ ...
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टंट्या के जिवन में बदलाव तब आया जब अंग्रेज़ो ने 1857 में अत्याचारो की सारी सिमाए लांग दी ....
और तब टंट्या ने अंग्रेजो के खिलाफ जंग छेड़ दी ...
1874 में उन्हें पहली बार जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया ....
एक साल की जेल के बाद तो टंट्या के अंदर की चिंगारी शोला बन चुकी थी
और फिर टंट्या मामा ने अपना काम और जोरो शोरो से शुरू कर दिया ......
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टंट्या ने अनेको बार अंग्रेजो की खजाना लेती हुई ट्रेन को लूटा , और फिर उन खजाने को गरीबो और ज़रूरतमंदों में बाँट देते थे । 1878 में फिर उन्हें जेल डाला गया पर वो वहा से तीन ही दिन के अंदर भाग निकले ...
टंट्या को गोरिला लड़ाई , बाला चलाना, चाकू चलाने में महारत हासिल थी , इसके इलावा मामा को बन्दूक चलने में बी महारत हासिल थी ....
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टंट्या भील ने अंग्रेजो ने नाक के निचे से कई बार चलती ट्रेन से खजाना लूटा , कई बार उन्हें जेल डाला गया पर हर बार वो भागने में कामयाब रहे ...
टंट्या के इन्ही कारनामो से वो पुरे भारत में प्रसिद्ध हुए और उन्हें टंट्या मामा का नाम मिला ... लोग उन्हें मामा के कर पुकारते थे ....
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तक़रीबन 20 साल की कड़ी मुशक्कत के बाद टंट्या भील को पकड़ा गया ...
टंट्या मामा के पकडे जाने की खबर अंग्रेजी अख़बार न्यू यॉर्क टाइम्स new york times में छपी जिसमे उन्हें ROBINHOOD OF INDIA के नाम से 10 नवंबर 1889 में प्रसारित किया गया था ...
indore के जेल में उन्हें अनेको यातनाये दी गयी ,
और फिर उन्हें 19 oct. 1889 को फांसी की सजा दे दी गयी .... अंग्रेजी सरकार को इतना डर था की आजतक ये पता नहीं चल पाया की उन्हें फांसी कब और कहा दी गयी .....
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कहा जाता है उन्हें patalpani रेलवे स्टेशन खंडवा रूट पर उनकी बॉडी को फेंक दिया गया था ... उसी जगा टंट्या मामा की समादी बनी हुई है
वहा आज बी जब कोई ट्रेन वहा से गुजरती है तो मामा को श्रदांजलि के लिए ट्रेन को 2 मिनट के लिए ट्रेन को रोका जाता है .
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ऐसा माना जाता है कि 1824-27 के आस-पास टंटया का जन्म हुआ। टंटया वास्तव में डाका डालने वाला डकैत नहीं था वरन् एक बागी था जिसने संकल्प लिया था कि विदेशी सत्ता के पांव उखाड़ना है। वह युवाओं के लिए एक जननायक का काम कर रहा था। तात्या टोपे ने टंटया भील को शिक्षा दी थी कि हमशक्ल रखना कितना फायदेमंद होता है। इतिहास गवाह है कि हमशक्ल रखने से कितनी तत्परता से अपने मकसद में कामयाब हुआ जा सकता है। टंटया भी अपने दल में हमशक्ल रखता था। पुलिस को परेशान करने के लिये टंटया एक साथ पांच-छह विपरीत दिशाओं में डाके डलवाता था। उस समय भील विद्रोहियों में जो टंटया के साथ थे उनमें से महादेव शैली, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे।

इनके पास बड़ी-बड़ी टोलियां थीं। बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, बैतूल, धार में टंटया को भीलों का प्रमुख दर्जा था। लूटमार करके वह होलकर रियासत राज्य में जाकर सुरक्षित हो जाता था। अपनी वीरता और अदम्य साहस की बदौलत तात्या टोपे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने टंटया को गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। इसी वजह से वह पकड़ा नहीं जा सका। पुलिस खोजती रहती पर उसे पकड़ने में असमर्थ रहती। लोग उसे डाकू कहते थे पर क्रांतिकारी बनकर जो कुछ भी वह लूटता उसे वह अंग्रेजों के विरुद्ध ही उपयोग में लाता था। वह निमाड़ का पहला विद्रोही भील युवक था। वह बड़ा ही बलशाली युवक था। उसमें चमत्कारिक बुद्धि शक्ति थी। उसे अवतारी व्यक्ति तक कहा जाने लगा। वह किसी स्त्री की लाज लुटते नहीं देख सकता था। टंटया के बारे में कहते हैं-

तांत्या बायो, टण्टया खड माटवो।
घाटया खड धान, भूख्या खडं बाटयो॥
   

जब टंटया भील को पुलिस द्वारा पकड़ा गया तो वह थानेदार का हाथ छुड़ाकर बाढ़ में नर्मदा में कूद गया। पीछे लगे थानेदार से कहा कि मार गोली मैं टंटया हूं। मुझे पकड़ो मैं भागूंगा नहीं। टंटया ने गिरफ्तारी दी। बाद में कुछ और लोगों को पकड़ा गया। तीन महीने जेल में रहकर वह सोच रहा था कि वह चाहता तो नर्मदा से निकलकर भाग जाता। वह क्यों पुलिस के हाथ पड़ता। सहयोगी पोपली, जसुधि ने समाचार भेजा कि जेल तोड़कर भाग निकलो।
संग्राम नाम का एक व्यक्ति जेल में डयूटी पर तैनात था। वह टंटया का हितैषी था। उसे वह सही सूचनाएं मुहैया कराता था। जेल से उसे खन्डवा ले जाया जा रहा था। वहां वह एक सिपाही की बंदूक लेकर कूद पड़ा और फिर फायर होने पर भी बच गया। एक बार जंगल में घुस जाने पर उसे कोई पकड़ नहीं सकता था।
बाद में पुलिस ने जालसाजी से उसे घेर लिया। मुखबिर को टंटया ने मार डाला। फांसी की सजा निर्धारित हो गई। शहादत 4 दिसम्बर 1889 को हुई। निमाड़ अंचल की गीत-गाथाओं में आज भी टंटया मामा को याद किया जाता है।

 आदिवासियों के इन विद्रोहों की शुरुआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही शुरू हो गयी थी और यह संघर्ष बीसवीं सदी की शुरुआत तक चलता रहा।

आदिवासियों के इलाके में बाहरी मैदानी क्षेत्रों के लोग यानि साहूकार, व्यापारी और ठेकेदार घुसते रहे। इन्हें दिकू कहा जाता था और ये संथालों के शोषक थे तथा उनकी घृणा के पात्र थे। ब्रिटिश शासन इनके संरक्षक के रूप में काम करता था। इसके अलावा आदिवासियों में प्रचलित सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा को मान्यता न देकर ब्रिटिश कानून व्यवस्था में निजी स्वामित्व को ही मान्यता दी गयी थी जिससे आदिवासी समाज में तनाव की स्थिति पैदा होते देर न लगी। ईसाई मिशनरियों को भी आदिवासियों ने अपना विरोधी समझा। क्योंकि, वे आदिवासियों के धार्मिक विश्वास पर चोट पहुंचा रहे थे। अंग्रेज सरकार के वन कानूनों ने भी आदिवासियों को अंग्रेजी शासन का विरोधी बना दिया। यह स्थिति देश के सभी आदिवासी इलाकों में एक सी थी। फल यह हुआ कि शुरू से ही छिटपुट हिंसक विद्रोहों के रूप में आदिवासियों की नाराजगी प्रकट होने लगी।

पूर्वी भारत के आदिवासी समुदायों ने लम्बा संघर्ष किया। मोआमारिया विद्रोह 1769 में शुरू होकर तीस साल तक चलता रहा। इसी प्रकार चकमा लोगों ने भी उसी दौरान विद्रोह किया। हो, खसिया, सिंगफो और अका जनजाति के लोगों ने उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक में ब्रिटिश शासकों की नाक में दम कर दिया। असम के वनांचल के गारों, अबोरों और लुशाइयों ने भी उन्नीसवीं सदी के मध्य में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। असम में कछार इलाके में 1882 में नागाओं ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया। उड़ीसा में गंजम के आदिवासियों ने और कटक के पाइकों ने विद्रोह किया। 1885 में पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और कटक के संथालों ने जबरदस्त विद्रोह किया। उसके बाद खेरवाड़ अथवा सफाहार आन्दोलन उठा जो अंग्रेजों के राजस्व बन्दोबस्त कानून के खिलाफ था।

उधर पूर्वी समुद्र तट में स्थित विशाखापट्टनम एजेन्सी में कोरा मल्लया नाम के व्यक्ति के नेतृत्व में लोग उठ खड़े हुए। गोदावरी एजेन्सी की पहाड़ियों में 1879-80 में रम्पा विद्रोह हुआ, जिसका केन्द्र था चोडावरम का रम्पा क्षेत्र। यहां के पहाड़ी मुखियों याने मुट्टादारों ने अपने स्वामी मनसबदार के खिलाफ विद्रोह कर दिया और बाद में यह अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में बदल गया। क्योंकि, अंग्रेजी शासन मनसबदार को सहायता दे रहा था। दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में और महाराष्ट्र के वनांचल में भी आदिवासियों ने ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध संगठित विद्रोह किये।

रांची के दक्षिणी इलाके में 1899-1900 में हुए बिरसा मुण्डा के प्रसिद्ध विद्रोह को कौन नहीं जानता। बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा आदिवासियों ने जो विद्रोह किया वह भारत के आदिवासी विद्रोह में सबसे प्रखर माना जाता है। मैदानों से आए व्यापारियों, साहूकारों और ठेकेदारों ने मुण्डा समुदाय में प्रचलित सामूहिक भू-स्वामित्व की पारंपरिक व्यवस्था को जिसे खूंटकट्टी भू-व्यवस्था कहा जाता था। उसे ध्वस्त कर दिया था। इन बाहरी लोगों की बेगारी से मुक्त होने के लिये मुण्डा लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। लेकिन, काम नहीं बना, उल्टे ब्रिटिश शासन ने शोषकों का ही पक्ष लिया। तब मुण्डा लोगों ने विद्रोह की शरण ली।

मध्यप्रदेश में भी गोंड और भील आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शस्त्र उठाए। 1842 के बुन्देला विद्रोह के समय उन्होनें लोधियों और बुन्देला ठाकुरों का सहयोग किया। इसके पन्द्रह साल बाद जब 1857 का विद्रोह हुआ तब नर्मदांचल में शंकरशाह गोंड और उसके बेटे रघुनाथ शाह को उनकी विद्रोहात्मक गतिविधियों के कारण 1857 में जबलपुर में तोप से उड़ा दिया गया। इसके बावजूद उस इलाके में गोंडों की हिम्मत नहीं टूटी और जबलपुर जिले के मदनपुर के मालगुजार ढिल्लनशाह गोंड, भुटगांव के महिपाल सिंह गोंड, मानगढ़ के राजा गंगाधार गोंड, और नन्नी कोंडा के देवीसिंह गोंड ने विद्रोह किया। सागर के कुनोर गांव के भगवानसिंह गोंड ने भी ऐसा ही किया। उधर मध्यप्रदेश के पश्चिमी हिस्से में बड़वानी के इलाके में खाज्या नायक, भीमा नायक, सीताराम कंवर और रघुनाथ मण्डलोई ने भी भीलों को बड़ी तादाद में एकत्र करके ब्रिटिश अधिकारियों की नाक में दम किया।

जनजातीय विद्रोहों की यह सूची सिर्फ एक बानगी है। असल में पूरे भारत में अंग्रेजी शासन की रीति-नीति के कारण आदिवासियों ने विद्रोह किया। अपने सीमित साधनों से वे लम्बे समय तक संघर्ष कर पाए। क्योंकि, वनांचल में गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का उन्होंने उपयोग किया। सामाजिक रूप से उनमें आपस में एकता थी और अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाने की उन्हें चिन्ता भी थी। इन बातों ने उनमें एकजुटता पैदा की और वे शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए।

संगठन और साधनों की कमी के कारण हालांकि ये विद्रोह कामयाब नहीं हुए। लेकिन, इनका सुदूरगामी प्रभाव पड़ा और ब्रिटिश शासन को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि आदिवासियों के हितों और उनकी पारंपरिक संस्कृति की उपेक्षा करना महंगा पड़ सकता है। विदेशी ताकत के खिलाफ होने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम में इन आदिवासियों की भूमिका को रेखांकित किया जाना जरूरी है जिससे आने वाली पीढ़ी उनके उत्सर्ग से प्रेरणा ले सके।



Tantya Mama, Tantia Bhil or Tantya as he is called in the Oral Tradition of the Bhils, is a great unknown saint of the Bhils or the ancient indigenous peoples of India Tantia Bhil was a selfless leader, Indigenous hero and dauntles freedom fighter of the national rank who fought against the British Powers, in his own way organising the local armies of the Bhils, This great hero today who deserves to be nationally honoured by placing this honourable leader's life size portrait, in the Central Hall of the Indian National Parliament. Tantia hails from the illiterate Bhil society of Nimar. Some centuries back the whole region of Malwa, Nimar, Khandesh, Nagar, Gujarat was densely populated by great Bhils who had encounters with Marathas, Britishe peoples and others They were local powers, hence proved to be imminent threatsor threats to the emerging powers as in many walks being seen even today and hence as a consequence in the past centuries, suffered suppressions alll through in the history. A fact visible even today in the different Bhil regions even in the working of the NGOS But Tanya Bhil and his patriotic Bhil companions, over looking over looking his own resources and the histoical enemity with the rest of the castes and folks in the nation, saw the foreign enemy as a threat to the country and battled fearlessly all through his shorlt lived life. Even though he was illiterate but whad great vision and daring.

Madhya Pradesh Government has rightly recognised his worth and brought out much literature both on audio-video and in print as well. Many schoars have paid attention to this forgotten but significant personality of the indigenous people in the nationa, as a national hero. Today a lots of literature is availabe on Tantia Bhil in Hindi, English, Marathi and Gujarati including in the oral tradition of the Bhils. And much more is in preparation. A good feature film in Hini, English, Marathi, and Gujarati awaits to inspire and awaken, affirm and encourage, also associate with the patriotic values found in the indignous populations of India for the youth of today Tantia Bhil needs to be introduced as a National and indigenous hero in the school and college text books. His spirituality to be introduced to the nation which exceeds even many of the political leaders and even christian missionaries of today in tribal region espcially in the Bhil regions. What has been done for Tantya Mama or Tantya Bhil today is only a drop in the ocean and not enough for honouring Tantya the Great Bhil and recognising indigenous peoples of India namely SC, ST & OBC and in particular context the Bhils. Important roads, building, markets, valleys, schools, colleges, research institutes, games awards, tribal olympics, copetitions, must be named instituted and initiated in justice and equality to perpetuate the rightful memory of Tanya Bhil including his his self sacrificing cmpanions. He was the father of the indigenous peoples as a whole. And much more remains to be done locally for Tantia Bhil and other Bhil or Indigenous heroes from Rajasthan, Gujarat, Madhya Pradesh and Maharashtra.This fact also equally applies to the other tribal or the indignous peoples heroes in India who are unjustly ignored by the other peoples in the indigneous peoples area. A great injustice is being done this way to the lacking social, cultural and psychological affirmation. Only this way we can restore the dignity to the indignous peoples and harm done tothem in the past. This will pave way to restore partially the cultural and historical rights of the Bhils, SC, ST & OBC. Also this will be perfect model of the national integration of the indignenous communities in India. Will the present national political parties give hid to the human, social and cultural rights of the indignous peoples of India in this way......?

1 comment:

  1. Yah jankari bahut faydemand aur upyogkari hain. Dhanyawad

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