Monday 11 April 2016

Rana Punja Bhil - राणा पूंजा भील






इतिहास में उल्लेख है कि राणा पूंजा भील का जन्म मेरपुर के मुखिया दूदा होलंकी के परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम केहरी बाई था, उनके पिता का देहांत होने के पश्चात 15 वर्ष की अल्पायु में उन्हें मेरपुर का मुखिया बना दिया गया। यह उनकी योग्यता की पहली परीक्षा थी, इस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर वे जल्दी ही ‘भोमट के राजा’ बन गए। अपनी संगठन शक्ति और जनता के प्रति प्यार-दुलार के चलते वे वीर भील नायक बन गए, उनकी ख्याति संपूर्ण मेवाड़ में फैल गई। इस दौरान 1576 ई. में मेवाड़ में मुगलों का संकट उभरा। इस संकट के काल में महाराणा प्रताप ने भील राणा पूंजा का सहयोग मांगा। ऐसे समय में भील मां के वीर पुत्र राणा पंूजा ने मुगलों से मुकाबला करने के लिए मेवाड़ के साथ अपने दल के साथ खड़े रहने का निर्णय किया। महाराणा को वचन दिया कि राणा पूंजा और मेवाड़ के सभी भील भाई मेवाड़ की रक्षा करने को तत्पर है। इस घोषणा के लिए महाराणा ने पूंजा भील को गले लगाया और अपना भाई कहा। 1576 ई. के हल्दीघाटी युद्ध में पुंजा जा भील ने अपनी सारी ताकत देश की रक्षा के लिए झोंक दी। हल्दीघाटी के युद्ध के अनिर्णित रहने में गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का ही करिश्मा था जिसे पूंजा भील के नेतृत्व में काम में लिया गया। इस युद्ध के बाद कई वर्षों तक मुगलों के आक्रमण को विफल करने में भीलों की शक्ति का अविस्मरणीय योगदान रहा है तथा उनके वंश में जन्मे वीर नायक पूंजा भील के इस युगों-युगों तक याद रखने योग्य शौर्य के संदर्भ में ही मेवाड़ के राजचिन्ह में एक ओर राजपूत तथा एक दूसरी तरफ भील प्रतीक अपनाया गया है। यही नहीं इस भील वंशज सरदार की उपलब्धियों और योगदान की प्रमाणिकता के रहने उन्हें ‘राणा’ की पदवी महाराणा द्वारा दी गई। अब हमारा राजा पूंजा भील ‘राणा पूंजा भील’ कहलाकर जाने लगे।

The Great Rana Punja Bhil and his Garasia Army.
सायद आपने 300 movie देखि हो। उसमे जो Spartons की सेना थी वेसी खूंखार, दमदार और जाबांज़ सेना आपको लगता होगा की सिर्फ Hollywood की फ़िल्म में ही हो सकती हे। पर सायद आपको ये नहीं मालुम होगा की ऐसी ही सेना आजसे 500 साल पहले हलदिगाती की लड़ाई में मौजूद थी। जी हां राणा पूंजा के नेतृत्व में लड़ने वाली सेना गरासिया।
16वि सताब्दी में जब महाराणा प्रताप का राज्य मेवार मुग़ल सेना के आक्रमणों की वजह से पूरा खत्म हो चूका था। तब महाराणा प्रताप अरवल्ली के जंगल में जाके इस भूमि पर बसने वाले सबसे वीर योद्धा के कबिले के पास मदद के लिए जा पहोंचे।
अब ये गरासिया कोण हे कहा से थे ये भी इतिहासकारो ने अलग अलग theory दी हे। कुछ कहते हे की ये आदिवासी थे जो की अरावली के जंगल में बस्ते और कुछ कहते हे की ये वो लोग थे जो की अपनी भूमि से बेहद प्यार करते और राजा और उनकी आर्मी को ट्रेन करते। उदय सिंह, महाराणा प्रताप और अमर सिंह का राजतिलक भी इन गरासिया के लोगों के खून से होता।
अब जब 1576 में फिरसे हलदिगाती की लड़ाई होने वाली थी तब महाराणा प्रताप को सिर्फ इस राणा पुंजा की भील गरासिया सेना का ही सहारा था। सिर्फ 9000 की इस सेना के सामने 86000 मुग़ल की फ़ौज थी।मुकाबला एक के सामने 9 का था। ये मुग़ल की फ़ौज 5 टुकड़ी में बटी हुई थी। साथ में इन मुग़ल के पास हाथी, गोड़े और तोफ भी बहुत थी। पर सामने गरासिया की सेना के पास सिर्फ भाले, तलवार और तीर कमान के अलावा कुछ भी नही था। पर जब युद्ध हुआ और सबसे भयानक और खूंखाए लड़ाई में जांबाज़ और खूंखार इन आज के आदिवासी गरासिया आर्मी ने लोगो 86000 में से सिर्फ 12000 मुग़ल को जिन्दा रहने दिया और मुग़ल की पांच टुकड़ी में से सिर्फ सैयद हासिम बारराह और माधो सिंह की टुकड़ी ही बच पायी क्योंकि उन्होंने सामने से गुटने टेक दिए। ये अकबर की सबसे बड़ी और ज़िल्लत भरी हार थी।
ये हार जो थी वो अकबर को बोहत चुभी इसीलिए अकबर ने अरवल्ली के नज़दीक ही छुप कर हमला कर लिया। तब सिर्फ महाराणा प्रताप की जान और अपने घर और पवत्रि जंगल को तबाह होने से बचाने के लिए गरासिया ओ ने खुद अपनी जान दाव पर लगादी पर महाराणा प्रताप और अरवल्ली की गिरीमाला को एक खरोच तक नहीं आने दी। पुंजा भील ने स्वयं महाराणा का कवच और मुकुट पहनके मुग़ल सेना को चकमा दिया और महाराणा प्रताप को सही सलामत अरवल्ली के जंगल बिच मेहफ़ूज़ जगह पर ले गए। इस बहादुरी और सहाशिक कार्य और गरासिया की वीरता को देख महाराणा प्रताप ने पुंज भील को राणा का ख़िताब दिया जो की राजपुताना भूमि पे महाराणा के बाद दूसरा सबसे बड़ा सामान होता हे।
महाराणा प्रताप के मारने के बाद स्वयं राणा पुंजा भील ने महाराणा के पुत्र अमर सिंह को तैयार किया और 17 साल की उम्र में अपने खून से उसका राजतिलक करके आधे मेवार को वापस जीत लिया। राणा पुंजा भील इतिहास के सबसे महान सेनापत्ति थे। आज भी उदैपुर में लोगो और स्मारक में एक तरफ महाराणा प्रताप होते हे तो दूसरी तरफ राणा पूंजा। आज भी स्मारक में आगे राजपूत तलवार लिए होते हे तो दूसरी तरफ आदिवासी गरासिया तीर कमान लिए। आज राणा पूंजा भील और गरासिया सेना के वंसज डूंगरपुर, बांसवारा, पाली और गुजरात के साबरकांठा और अरवल्ली में बस्ते हे। पर आज इन आदिवासी गरासिया की महानता और वीरता को किसी ने भी नहीं सराहा। सायद इसीलिए आदिवासी हमेसा निस्वार्थ भाव से अपनी भूमि और वन की रक्षा करता हे क्योंकि वो पैसे और जागीर के नहीं लालची नहीं हे।



Punja Bhil or Punja bheel was born in the family of Dunha Holika at village Merpur. After the demise of his father he was made head of the village at the age of 15 years. Later he became the king of King of Bhomat in Mewar region (Rajasthan). In 1576 Maharana Pratap of Udaipur sought the help of Punja Bhil in his fight with Akbar. Punja Bhil agreed [1] to save Mewar Region from the Moguls.  Punja Bhil and his men used Gurilla-Techniques of War of Haldi Ghati where Punja Bhil fought side by side with Maharana Pratap against Mogul Army. The title Rana was conferred on Punja bhil by the Rajputs of Mewar. The participation of Bhils in the war is acknowledged [2] by  royal emblem of Mewar State which carries a Victory Tower that is flanked by a Rajput warrior on one side and “ a bow –arrow-bearing Bhil”, on the other. Even after the battle of Haldi Ghati, Rana Punja and his tribesman came forward [3] time and time again, to fight for the freedom of Mewar. The Bhils are also represented on the Mewar Coat of Arms, standing side by side. During the coronation [3] ceremony a Bhil tribesman must honour the new Maharana with a tilak (marking on the forehead) of his own blood. It is only then that the new Maharana will be universally recognized as successor.

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